उज्जैन : गुरूवार को महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ, स्वराज संस्थान संचालनालय मध्यप्रदेश शासन संस्कृति विभाग में भारत के प्राचीन मंदिरों पर आधारित 50 चित्रों की प्रदर्शनी का शुभारंभ हुआ। यह प्रदर्शनी 16 अक्टूबर से 16 नवंबर तक प्रतिदिन प्रातः 10 से सायं 6:00 बजे तक विद्वानों, शोधार्थियों एवं जिज्ञासुओं के लिए खुली रहेगी।इस अवसर पर मुख्य वक्ता प्रो. शिवशंकर मिश्र ने कहा कि सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्न सर्व प्रसिद्ध है। उन्ही में से एक है व्याकरण आचार्य वररुचि अष्टादश विद्याओं की चर्चा हमारे यहां प्राचीन ऋषियों द्वारा की गई है। अन्य विषयों का समावेश करने पर ये विद्याएं सैकड़ों की हो जाती है। राजा का उत्कर्ष समकालीन आचार्य द्वारा होता है। ऐसे ही सम्राट विक्रमादित्य का उत्कर्ष भी समकालीन आचार्यों, कवियों के द्वारा ही विद्यमान है। न्याय प्रिय तथा शास्त्रानुमोदित कार्य करने के कारण ही सम्राट विक्रमादित्य लोकरंजक बने। आज आवश्यकता इस बात की है कि इन सभी नवरत्नों के अवदान को समाज में स्थापित किया जाए। चाणक्य का वाक्य है सुखस्य मूलं धर्मः। धर्मस्य मूलं अर्थः। अर्थस्य मूलं राज्या राज्यस्य मूलं इन्द्रिय जयः। इन्द्रियाजयस्य मूलं विनयः। विनयस्य मूलं वृद्धोपसेवा।।सुख का मूल है, धर्म। धर्म का मूल है, अर्थ। अर्थ का मूल है, राज्या राज्य का मूल है, इन्द्रियों पर विजय। इन्द्रियजय का मूल है, विनय। विनय का मूल है, वृद्धों की सेवा। धर्माचरण करने पर ही शाश्वत सुख प्राप्त होता है तथा जीवात्मा मनुष्य ही सभी के साथ एक जैसा व्यवहार करता है, भाषा विज्ञान को समझने के लिए महर्षि पाणिनि का व्याकरण अध्ययन करने की आवश्यकता है। सभी विषयों का मूल जानने के लिए हमें संस्कृत पढ़ना आवश्यक है। संस्कृत को जाने बिना भारत को नहीं जाना जा सकता। संस्कृत आत्म स्वरूप के साथ-साथ संस्कृति का बोध कराती है। पाणिनि अष्टाध्यायी में चार हजार सूत्र है। 14 महेश्वर सूत्रों को लेकर ही इन चार हजार सूत्रों बनाए गए और फिर इसी में भाषा विज्ञान का निर्माण हुआ वररुचि का नाम कत्यांयन भी है।पत्र कौमुदी नामक ग्रंथ की रचना की जो कि पत्र लेखन का एक प्रकार है जिसमें पत्र कि भाषा पदावली पर विस्तार से चर्चा है। लिंग विशेष विधि नामक एक ग्रंथ है जिसमे अनंत शब्दों के लिंगों की चर्चा की गई है, विक्रमादित्य के आदेश पर ही दोनों ग्रंथों का प्रणयन किया गया है। विद्यासुंदर काव्य, निरुक्त समुच्चय, नीति रत्न सहित अनेक ग्रंथ है जिनकी रचना आचार्य वररुचि के द्वारा की गई काव्य-ज्योतिष तथा व्याकरण विषय के क्षेत्र में आचार्य वररुचि ने कई ग्रंथों का प्रणयन किया है।कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. प्रशांत पुराणिक ने की। इस अवसर पर संगोष्ठी के निदेशक डॉ. रमण सोलंकी, महाराजा विक्रमादित्य शोधपीठ, डॉ. महेंद्र पंड्या, रितेश वर्मा, शुभम अहिरवार आदि उपस्थित थे।कार्यक्रम का संचालन डॉ. अजय शर्मा ने किया व आभार व्यक्त श्री विजेद्र वर्मा ने किया।
वर्तमान काल सनातन संस्कृति का स्वर्ण युग है

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