महेश अग्रवाल
11 दिसंबर को विश्व भर में अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस मनाया जाता है। पर्वत मानव सभ्यता का प्राचीनतम शिक्षक माना गया है – एक ऐसा गुरु जो न बोलता है, न समझाता है, फिर भी जीवन का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान दे जाता है। पर्वत का मौन, उसका धैर्य, उसकी स्थिरता, उसकी ऊँचाई – ये सभी अध्यात्म, धर्म, योग और प्रकृति-दर्शन के मूलभूत स्वरूप हैं। मानव जीवन जब भागदौड़, तनाव, अहंकार और असंतुलन से घिर जाता है, तब पर्वत हमें पुनः स्मरण कराते हैं कि – ऊँचाई विनम्रता से आती है। स्थिरता साधना से आती है। शांति मौन से आती है और आत्मोदय प्रकृति से जुड़ने से आता है। इसी कारण भारत की अध्यात्म-परंपरा में पर्वत सदैव तपस्या, साधना, तीर्थ, योग और मोक्ष से जुड़े रहे हैं।
*पर्वत – भारतीय धर्म और अध्यात्म का आधार* हिमालय – आध्यात्मिक ऊर्जा का केंद्र – हिमालय केवल बर्फ का पहाड़ नहीं; वह भारत की आत्मा है। ऋषि-मुनि, तपस्वी, योगी, संत – सभी ने इसे देवभूमि कहा है। हिमालय के बारे में शास्त्र कहते हैं – हिमालयं समारभ्य यावत् इंद्रसरस्वती। या भारत भूते पृथिवी, सैव हिंदुस्तानः। हिमालय को शिव का निवास कहा गया – कैलास। यहीं से गंगा का अवतरण हुआ-जीवनदायिनी शक्ति।हिमालय की आध्यात्मिक विशेषता है – पवित्रता, मौन, गहनता, दिव्य कंपन। पर्वत और तपस्या – भारतीय इतिहास में पर्वत हमेशा तपस्वियों का आश्रय रहे। क्यों? वहाँ प्रकृति का अनुपम शांति-क्षेत्र होता है। मन इंद्रियों से हटकर भीतर केंद्रित हो जाता है। भीड़, शोर और भौतिक आकर्षणों से दूरी मिलती है। ऊँचाई मन में व्यापकता और विवेक जगाती है। इसलिए ऋषि-मुनि पर्वतों पर जाकर दर्शन, योग, ध्यान और शास्त्र रचना करते रहे।
*पर्वतों का धार्मिक महत्व* भारत की आध्यात्मिक परंपरा में पर्वत केवल भू-आकृति नहीं, बल्कि दैवी चेतना के निवास माने गए हैं। हमारे शास्त्रों में पर्वतों को स्थिरता, तपस्या, दिव्यता और आत्मोन्नति का प्रतीक बताया गया है। हिमालय को देवताओं का निवास और धरती का मुकुट कहा गया है, जहाँ शिव की आत्मधारा, ऋषियों की साधना और ऋतुओं का पवित्र संतुलन विराजमान है। कैलाश पर्वत शिव के निष्काम ध्यान का, अरावली और विंध्य पर्वतमालाएँ मातृशक्ति और संरक्षण का, वहीं गिरिराज गोवर्धन कृष्ण के प्रेम, करुणा और सेवाभाव का रूप माने गए हैं। जैन धर्म में पर्वत मुक्तिदायिनी भूमि हैं – जहाँ अनेक तीर्थंकरों ने तपस्या करके कैवल्य प्राप्त किया। बौद्ध धर्म में पर्वत बुद्ध के मौन व ध्यान की गहराई का प्रतीक हैं। हर धर्म में पर्वतों को आत्मा को ऊपर उठाने वाली ऊर्जा, एकांत साधना, और दिव्य प्रकाश के केंद्र के रूप में सम्मान दिया गया है। इसलिए पर्वत की ओर देखना मात्र मन में श्रद्धा, शांति, संयम और स्थिरता का भाव जगाता है – मानो प्रकृति स्वयं कह रही हो, ऊँचे बनो, पर अपने आधार को न भूलो।
*पर्वत – शक्ति और मातृत्व का प्रतीक* भारत की पर्वत-परंपरा केवल तपस्या तक सीमित नहीं। पर्वत को माता भी कहा गया – पर्वतराज हिमालय की पुत्री – पार्वती। नवरात्रि में देवी का स्वरूप सायंकाल पर्वत पर विराजमान प्रकाश के रूप में भी वर्णित है। इस प्रकार पर्वत भारत के सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग हैं।
*पर्वत और योग – साधना का सर्वोत्तम स्थान* पर्वत का मौन – ध्यान का प्राकृतिक साथी – योग का सार है – चित्तवृत्ति निरोध। जब मन शांत हो, तभी ध्यान गहराई में उतरता है। पर्वत – शून्य शोर प्राकृतिक हवा, खुला आकाश, कम तापमान, उच्च ऊर्जा, शुद्ध प्राणवायु ये सभी योग-साधना को कई गुना शक्तिशाली बना देते हैं। प्राणायाम के लिए पर्वतीय वातावरण क्यों उत्तम? पर्वतों पर – ऑक्सीजन शुद्धतम रूप में होती है, प्रदूषण अत्यंत कम, वायु में नकारात्मक आयन अधिक, जो मन को शांत करते हैं। शीतलता शरीर के ताप को संतुलित करती है इस प्रकार, अनुलोम-विलोम, कपालभाति, भस्त्रिका, और दीर्घ-श्वसन पर्वतों पर अत्यधिक प्रभावी होते हैं। पर्वत और आसनों का संतुलन – पर्वतीय वातावरण में – वृक्षासन, ताड़ासन, गरुड़ासन, पद्मासन, ध्यानासन जैसे आसन मानसिक संतुलन बढ़ाते हैं और प्रकृति की ऊँचाई का भाव भीतर भी जागृत करते हैं। साधना में ऊँचाई का महत्व – ऊँचाई पर पहुँचने पर मन स्वतः ही – व्यापक होता है, निकृष्ट विचारों से मुक्त होता है, सूक्ष्म ऊर्जा को ग्रहण करने लगता है, आत्मा में हल्कापन आता है, अहंकार घटने लगता है इसलिए योग के शास्त्रों में उर्ध्वगामी प्राणशक्ति का वर्णन पर्वत के संदर्भ में मिलता है।
*पर्वत : आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक* पर्वत पर चढ़ना – आत्म की ओर चढ़ना, पर्वत पर चढ़ने का अनुभव जीवन के उत्थान जैसा ही है – कदम-कदम पर संघर्ष बीच में थकान कभी रास्ता कठिन कभी चट्टानें टूटती हुई लेकिन शिखर पर पहुँचकर – सब स्पष्ट और सुंदर इसी तरह साधना की यात्रा भी धीरे-धीरे शिखर तक पहुँचती है। पर्वत की स्थिरता – मन का आदर्श – एक पर्वत खड़ा रहता है – न आँधियाँ उसकी ऊँचाई कम करती हैं, न बर्फ उसकी शक्ति को घटाती है, न वर्षा उसकी जड़ों को ढीला करती है। मनुष्य को यही सिखाता है – जीवन में दृढ़ रहो। परिस्थितियाँ बदलेंगी – तुम न बदलो। पर्वत की ऊँचाई – आत्मा का विस्तार – शिखर पर पहुँचने के बाद – आकाश का विस्तार, वायु की स्वतंत्रता, चारों ओर अनंतता – ये सब मन को सीमाओं से बाहर ले जाते हैं।आध्यात्मिक रूप में यह ब्रह्म-भाव का अनुभव देता है। पर्वत की बर्फ – पवित्रता और शीतलता का प्रतीक – बर्फ का सफेद रंग – अंदर की आसक्तियों का क्षय, विचारों की शुद्धता, अहंकार का विलयन, शांत चित्त इन सबका प्रतीक है।
*धर्म, पुराण और पर्वत – आध्यात्मिक कथाएँ* शिव और कैलास – कैलास – शिव का निवास, तुंगता का प्रतीक, मौन का मंदिर। शिव का योगी-स्वरूप पर्वत ही है – स्थिर, निर्विकार, गहन और अनंत। गिरीराज गोवर्धन – श्रीमद्भगवद्गीता व पुराणों में गोवर्धन पर्वत – भक्तिभाव संरक्षण धर्म का प्रतीक है। भगवान कृष्ण का गोवर्धन-धारण इस बात का संदेश देता है कि पर्वत प्रकृति की रक्षा करते हैं और देवत्व का आश्रय हैं। अरावली, विंध्य और सतपुड़ा – भारत की ऊर्जा-रेखाएँ। भारत की भूगोल में तीन पर्वत-श्रृंखलाएँ विशेष महत्व रखती हैं – अरावली – पृथ्वी की सबसे प्राचीन पर्वत-श्रृंखला। विंध्याचल – देवी के सिद्ध-पीठों का निवास। सतपुड़ा – मध्य भारत की आध्यात्मिक ऊर्जा का स्रोत। मध्यप्रदेश स्वयं इन तीनों ऊर्जा-रेखाओं से लाभान्वित है, इसलिए यहाँ योग, अध्यात्म, ध्यान और प्राकृतिक साधना का गहरा आधार है।
*पर्वत – पर्यावरण, जीवन और मानवता के रक्षक* जल का स्त्रोत – पर्वत – दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी का पानी पर्वतों से आता है। हिमालय न हो तो – यमुना, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, सतलुज सबका अस्तित्व ही न रहे। इसलिए पर्वत केवल आध्यात्मिक ही नहीं – जीवन-आधार भी हैं। औषधियों का घर – आयुर्वेद की 70 प्रतिशत जड़ी-बूटियाँ पर्वतीय क्षेत्रों में जन्म लेती हैं – गिलोय, अश्वगंधा, कुटकी, शिलाजीत, ब्राह्मी, भृंगराज, अतिविषा आदि। ये योगिक जीवन के लिए अमृत के समान हैं। पर्वत हवा के संतुलक – पर्वत प्राकृतिक शीतलन व्यवस्था हैं। वे पृथ्वी के ताप को नियंत्रित करते हैं। तापमान संतुलन मानव मन पर भी प्रभाव करता है – ठंडी हवा से मन शांत, स्वभाव मधुर, विचार सात्विक होते हैं।
*योग – दर्शन में पर्वत का रूपक* योगसूत्र में पर्वत के कई गुण साधक के लिए आदर्श माने गए हैं – स्थिरता – ध्यान का प्रथम लक्ष्य – शरीर और मन को पर्वत-सा स्थिर करना। ऊर्ध्वगामी ऊर्जा – योग का उद्देश है – प्राणों को ऊपर उठाना, जैसे पर्वत धरती को आकाश की ओर उठाते हैं। अनासक्ति – पर्वत में चारों ऋतुएँ आती हैं, पर पर्वत विचलित नहीं होता। योग में इसे कहते हैं – वैराग्य। सहनशीलता – आँधी, तूफान, बर्फ, बारिश – सबको सहन करना। पर्वत की यही सीख योगी को विपत्तियों में भी शांत रखती है।
*आज के समय में पर्वत का आध्यात्मिक संदेश* 21वीं सदी में मनुष्य – तनाव, अनिद्रा, मानसिक बोझ, भागदौड़, प्रदूषण, मोबाइल निर्भरता से ग्रस्त है। पर्वत मनुष्य को याद दिलाते हैं – धीमे चलो, गहराई में जियो, शांति को पहचानो और प्रकृति से पुनः जुड़ो। पर्वत हमें पाँच बातें सिखाते हैं – ऊँचा सोचो, पर विनम्र रहो, स्थिर रहो, पर आगे बढ़ते रहो, मौन की शक्ति पहचानो, प्रकृति के साथ तादात्म्य बनाओ, शांति को जीवन का मूल केन्द्र बनाओ।
*पर्यावरण संरक्षण – पर्वत की रक्षा, मानवता की रक्षा* अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस हमें यह भी चेतावनी देता है कि – ग्लेशियर पिघल रहे हैं, नदियाँ सूख रही हैं, जंगल घट रहे हैं, पर्वतीय जीव समाप्त हो रहे हैं यदि पर्वत न रहे, तो – न जल रहेगा, न हवा, न वर्षा, न जीवन इसलिए पर्वतों की रक्षा केवल एक दिन का कार्यक्रम नहीं, यह मानवजाति के अस्तित्व का प्रश्न है।
*पर्वत – ध्यानस्थ ब्रह्मज्ञान का प्रतीक* अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस हमें याद दिलाता है – प्रकृति हमारी गुरु है, पर्वत हमारी प्रेरणा हैं, हिमालय हमारी आत्मा है और शांति हमारी वास्तविक शक्ति है। पर्वत मानव को बताते हैं – ऊँचाई पाने का अर्थ दूसरों पर चढ़ना नहीं, अपने भीतर उठना है। पर्वत हमें साधना की राह दिखाते हैं – स्थिरता, धैर्य, गहनता, मौन, शांति और आत्मोन्नति की। योग और अध्यात्म की संपूर्ण यात्रा एक पर्वत-यात्रा ही है – जहाँ हर कदम हमें और अधिक शुद्ध, शांत, ऊर्ध्वगामी और प्रकाशमय बनाता है।
*सूर्यनमस्कार में पर्वतासन – ऊर्जा को ऊपर उठाने वाला संक्रमण- आसन* सूर्यनमस्कार की बारह गतियों में पर्वतासन वह अवस्था है जहाँ शरीर की ऊर्जा नीचे की ओर झुकती हुई प्रतीत होती है, पर भीतर से ऊर्ध्वगामी प्राणशक्ति जागृत होने लगती है। इस आसन में साधक दोनों हाथों और पैरों को भूमि पर मजबूती से टिकाकर पर्वत-सा त्रिकोण बनाता है। यह वही क्षण है, जब शरीर धरती से ऊर्जा ग्रहण करता है और मन आकाश की ओर उन्मुख होने लगता है। सूर्यनमस्कार में पर्वतासन केवल शरीर को खींचने का अभ्यास नहीं, बल्कि ऊर्जा-बिन्दुओं के समायोजन का महत्वपूर्ण चरण है – जहाँ मेरुदंड लंबा होता है, कंधे मुक्त होते हैं, नाभि केंद्र सक्रिय होता है और मन स्थिरता का अनुभव करता है। जैसे पर्वत अपने आधार पर अडिग खड़ा रहता है, वैसे ही इस आसन में साधक के भीतर भी दृढ़ता, समर्पण और संतुलन का भाव उत्पन्न होता है। सूर्यनमस्कार का यह चरण हमें संदेश देता है – हर उन्नति विनम्रता और दृढ़ आधार से ही संभव है।
*योग अभ्यास में पर्वत से जुड़े आसन एवं मुद्राएँ* योग में पर्वत केवल एक प्राकृतिक संरचना नहीं, बल्कि स्थिरता, धैर्य, संतुलन और ऊर्ध्वगामी चेतना का प्रतीक माना जाता है। इसी कारण अनेक योगासन और मुद्राएँ पर्वत के गुणों को आत्मसात करते हुए साधक को मानसिक और आध्यात्मिक रूप से ऊँचा उठाने का कार्य करती हैं। पर्वतासन शरीर को सीधा, स्थिर और संतुलित बनाकर मन में अडिगता स्थापित करता है, जबकि परवतालासन भुजाओं के ऊर्ध्व विस्तार के माध्यम से साधक को पर्वत की शिखर-ऊर्जा का अनुभव कराता है। सूर्यनमस्कार में आने वाला पर्वतासन/अधोमुख श्वानासन त्रिकोणाकार पर्वत जैसी आकृति बनाकर ऊर्जा को नीचे से ऊपर प्रवाहित करता है। ध्यान की मुद्रा पद्मासन को भी पर्वत जैसी अचलता का प्रतीक माना जाता है, जहाँ मन मौन हो जाता है और चेतना गहन हो जाती है। इसी प्रकार वृक्षासन, ताड़ासन, वज्रासन जैसी मुद्राएँ पर्वतीय दृढ़ता, संतुलन और स्थिरता का भाव जागृत करती हैं। इन सभी आसनों का सार यही है कि योगी अपने भीतर वह शक्ति विकसित करे जो पर्वत में होती है – मौन, अडिग, संतुलित और सदैव ऊर्ध्वगामी। जब साधक इन आसनों का अभ्यास करता है, तब वह केवल शरीर को नहीं, बल्कि अपनी संपूर्ण चेतना को पर्वत-सा ऊँचा और स्थिर बनाता है।
*पर्वतासन : पर्वत की स्थिरता और ऊर्ध्वगामिता का योगिक रूप* योग में पर्वतासन को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि यह आसन स्वयं पर्वत के गुणों – स्थिरता, संतुलन, ऊँचाई और मौन – का प्रतीक है। जब साधक ताड़ की भाँति सीधा खड़ा होता है, दोनों पैरों पर समान भार रखता है, रीढ़ की हड्डी को ऊपर की ओर खींचता है और दृष्टि को एक बिंदु पर स्थिर रखता है – तभी शरीर और मन दोनों में पर्वत-सा धैर्य और दृढ़ता उत्पन्न होती है। पर्वतासन हमारे पादतल से लेकर सहस्रार तक ऊर्जा के प्रवाह को जागृत करता है और आत्मा को ऊपर उठने की प्रेरणा देता है। यह आसन हमें सिखाता है कि जैसे पर्वत किसी भी परिस्थिति में अडिग रहता है, वैसे ही जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी योगी को अपने भीतर शांति, संतुलन और स्थिरता बनाए रखनी चाहिए। पर्वतासन में कुछ क्षण रुकना आत्म- निर्देशन, उन्नति और आंतरिक शक्ति का अनुभव कराता है – मानो स्वयं प्रकृति हमें फुसफुसा कर कह रही हो, ऊँचे बनो, पर जड़ों से जुड़े रहो।

















Leave a Reply