यतीन्द्र अत्रे
अभी कुछ दिनों पूर्व हमने बांग्लादेश को कोसा। वहां अल्पसंख्यक परिवारों ने किस तरह बांग्लादेश में दिन काटे यह किसी से छुपा नहीं है। सिस्टम द्वारा एक पक्षीय लिए गए निर्णय के विरुद्ध दूसरे देशों के साथ भारत ने भी आवाज उठाई। यकीनन बांग्लादेश एक छोटा देश है उसकी तुलना भारत से नहीं की जा सकती है लेकिन देश में हाल ही में घटित हुई दो बड़ी घटनाओं में संज्ञान लेते हुए उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा एवं इसके पूर्व पीड़ित परिवारों के पक्ष में आंदोलन से उपजी स्थिति किस ओर इशारा करती है, यह समझना आवश्यक है। भारत शांति का पक्षधर रहा है, इसके चलते दुनिया में देश की एक अलग छवि निर्मित हुई है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस और उसके बाद यूक्रेन की यात्रा के दौरान उम्मीद जताई है कि यूक्रेन और रूस की बातचीत अब टेबल पर आना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि भारत उन दोनों राष्ट्रों के मध्य भी शांति का पक्षधर है, लेकिन देश के अंदर हो रही घटनाएं और उसके बाद आंदोलन की राह में अग्रसर होना यह सब स्थितियां गुलामी के दिनों की याद ताजा करती हैं जब हमें न्याय के लिए अंग्रेज सरकार से लड़ना होता था एक पक्षीय निर्णय हमारे ऊपर थोपे जाते थे। देश को स्वतंत्र हुए 77 वर्ष हो चुके हैं फिर भी कभी-कभी यह लगता है कि स्थिति में बहुत बड़ा बदलाव नहीं हुआ है आज भी हमें न्याय के लिए आंदोलन करना पड़ता है पीड़ित परिवारों के लिए आवाज उठाने पर आज भी जेल में डाल दिया जाता है कोलकाता और बदलापुर में हुए विचार की घटना को यदि पूर्व में ही संज्ञान में ले लिया गया होता तो आज जो स्थिति निर्मित हुई है संभवत यह नहीं होती। इस संबंध में यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि यदि देश में न्यायालय नहीं होते तो क्या लोगों को न्याय नहीं मिल पाता ? दरअसल कोलकाता में हुई ट्रेनी डॉक्टर की दुष्कर्म के बाद हत्या और बदलापुर में हुई छोटी बच्चियों के साथ हुई यौन शोषण की घटना ने देश को झंकझोर दिया है। घटना के बाद हुई प्रशासनिक लापरवाही ने स्थिति को और भयावह बना दिया है। कहा जा रहा है कि यदि समय रहते कार्रवाई की जाती तो स्थिति इससे बेहतर हो सकती थी। लेकिन हमारे यहां घटना की एफ आई आर करना सबसे बड़ा कठिन काम होता है। सबसे पहले तो एफ आई आर दर्ज कराने वाले व्यक्ति को ही संदेह के घेरे में लिया जाता है। देर यहीं नहीं होती है बात जब जिम्मेदारों तक पहुंचती है तब आरोप प्रत्यारोप के माध्यम से घटना को दबाने का प्रयास किया जाता है। हाल ही में प्रकाशित समाचार भी इसी बात का प्रमाण दे रहे हैं। कोलकाता और बदलापुर में पीड़ित परिवारों के परिजनों के साथ आम जनों ने न्याय के लिए जो आंदोलन किया उनमें कोई गुंडे, मवाली या आतंकी नहीं थे। मीडिया चैनल एवं समाचार पत्रों में प्रकाशित उनकी तस्वीर उनके कथन यह दर्शाते हैं कि वह पढ़े लिखे हैं और सिर्फ वे लोग वो वांट जस्टिस की बात कर रहे हैं। देश में आज हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है हमारे विरुद्ध हो रहे अत्याचार के संबंध में न्याय मांगने की स्वतंत्रता है ,लेकिन परिणाम स्वरुप यदि जेल में डाल दिया जाता है यह कहां का न्याय है ?
मो. : 9425004536
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