यतीन्द्र अत्रे,
महाकुंभ के 45 दिन पूर्ण हुए, अंतिम समय में भी यह हर्ष का विषय रहा कि, 19 हजार कार्यकर्ताओं ने गंगा के घाटों की सफाई करते हुए प्रयागराज का नाम गिनीज बुक में दर्ज कराया। अब जब गंगा के घाट खाली हो चुके हैं तब देश में महाकुंभ की व्यवस्थाओं एवं स्नान के महत्व को लेकर एक महा विश्लेषण को अंजाम देने के लिए चर्चाएं आम हैं। निश्चित रूप से जो लोग आस्था होते हुए भी किसी कारणवश संगम तट तक नहीं पहुंच पाए, संभवत उनके पास हाथ मलने के सिवा कुछ नहीं होगा। उनका यह सोचना भी स्वाभाविक होगा कि इस महान तीर्थ में जो 144 वर्षों बाद के पवित्र स्नान का योग था हम क्यों उसके साक्षी नहीं बन पाएं।
देखा जाए तो महाकुंभ में यात्रा से लेकर आस्था की डुबकी लगाने तक सब कुछ सहज दिखाई दे रहा था। मीडिया चैनल समाचार पत्रों में दिखाई तस्वीरें भी इसी बात का प्रमाण दे रही थी।
शर्मा जी ने वर्मा जी से कहा- ट्रेन से रिजर्वेशन नहीं मिल रहा है सो सड़क मार्ग से चलते हैं, मालवीय जी ने दो और परिवारों की रजा मंदी ली और निकल पड़े रीवा-कटनी मार्ग से होते प्रयागराज। इधर प्रयागराज से लौटे शाक्य जी ने तो अपना अनुभव ज्ञान बांटते हुए यहां तक कहा कि ज्यादा सामान ले जाने की आवश्यकता नहीं है, वहां सब व्यवस्था है। यह भी बताया कि 100 से रू 200 में 24 घंटे तक रुकने की व्यवस्था है,लेकिन ध्यान रहे स्नान करते ही लौटना है… वहीं जोशी जी के संबंधी को इस बात का मलाल रहा कि वे उन्हें बिना बताए कुंभ अकेले ही हो आए…।
ये अचंभित करने वाली बात रही कि, सरकार एवं प्रशासन की व्यवस्थाओं से इतर यह तंत्र भी अपना कार्य सुचारु रूप से कर रहा था, जो परस्पर भरोसे की मिसाल बनता रहा- कि ‘सब कुछ सामान्य है आप स्नान कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त यदि उन 66 करोड़ श्रद्धालुओं के साथ कुछ था तो वह थी उनकी आस्था जो एक व्याप्त भय के बावजूद उन्हें संगम तट की और ले जा रही थी। हालांकि चर्चाएं आम में मोदी और योगी के डबल इंजन सरकार के कशीदे भी पढ़े जा रहे हैं, वही प्रशासनिक अधिकारियों की मुस्तैदी, पुलिसकर्मी- सेवादारों की प्रशंसा भी सम्मिलित रही हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने प्रकाशित अपने एक लेख के माध्यम से विचार साझा करते हुए लिखा है – श्री कृष्ण ने माता यशोदा को अपने मुख में ब्रम्हांड के दर्शन कराए थे, वैसे ही इस महाकुंभ में विश्व ने भारत के सामर्थ्य के विराट स्वरूप के दर्शन किए हैं।
चलचित्र एवं तस्वीरों में हम जो देख पा रहे थे, वह था एक भीड़ का सैलाब जो बिना दुख-तकलीफ की अभिव्यक्ति के संगम तट की ओर जा रहा था। यदि हम सरकारी आंकड़ों का पक्ष एक बार ना माने फिर भी जिस संख्या में लोगों ने विशेष कर मध्यवर्गीय परिवारों ने मीलों पैदल चलकर संगम तट तक पहुंचने का अपना लक्ष्य पूरा किया है, उसे देखकर लगता है की आस्था से भरे इन श्रद्धालुओं ने भारत में विश्व की एक सुखद पहचान बनाई है। देश में जब ए.आई. का दौर चल रहा है, ऐसा प्रतीत होता है भारतवासियों का एक बड़ा वर्ग जो बदलते युग में स्वयं को परिवर्तित तो करना चाहता हैं लेकिन सनातनी मार्ग पर चलते हुए अपनी आस्था और परंपरा के साथ। अब यदि इससे हटकर हम चर्चा करें जिसके बिना आमतौर पर किसी विषय की पूर्णाहुति नहीं होती है, इसके अंतर्गत विपक्षी पार्टियों द्वारा महाकुंभ की व्यवस्थाओं को लेकर तीखे प्रहार किए गए, पानी के दूषित होने की बात कही गई, आयोजन के दौरान 30 श्रद्धालुओं की दुखद मृत्यु की खबर सुर्खियों में आई। लेकिन सिर्फ आरोप लगाने भर से जनता के दिलों को नहीं जीता जा सकता है। आरोप लगाने वाले आरोपों की झड़ी के बीच संभवत यह भी भूल गए कि, इस महापर्व का पूरा श्रेय अनजाने में वे योगी-मोदी सरकार को दे बैठे। संगम तट पर श्रद्धालुओं के बीच उनका सम्मिलित ना होना इसके परिणाम को भी संभवतः भविष्य ही तय करेगा।
मो.: 9425004536
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