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एक युवती की कथा : व्यवस्था की व्यथा

आज सब जगह जेंडर इक्विलिटी की बात चल रही है, मीडिया, सरकार यहां तक कि बेसरोकार भी इससे सरोकार रखते हैं, लेकिन आज ही शहर के व्यस्ततम चौराहे पर अपना अपमान बचाने का अंतिम प्रयास किया और मैं विफल हो गई, हाँ इस पितृ सत्तात्मक समाज में मुझे फिर नीचा दिखाया गया। मैंने हमेशा हेलमेट पहने बिना ट्रैफिक के चौराहों को पार किया परंतु मुझे किसी ने रोकना तो दूर मेरी तरफ देखा भी नहीं जबकि मेरे आसपास खड़े बूढ़े, युवा और अधेड़ों की बाइक में से चाबी निकाल कर या उनके पीछे बैठ कर उनका चालान बनवाया गया और मैं बड़ी हसरत से उन ट्रैफिक के रखवालों का मुंह ताकती रह गई कि कोई तो मुझे इस अपराध बोझ से मुक्त करे कि मैं सिर्फ एक लड़की नहीं वरन एक इंसान भी हूँ जिसके सिर को भी उतनी ही सुरक्षा की आवश्यकता है, जितनी किसी पुरुष को। ऐसा नहीं कि मैं अपनी सुरक्षा के लिए जागरूक नहीं हूं, मैं भी हेलमेट लगाती थी। यातायात के सारे नियमों का पालन करती थी परन्तु जब मैंने देखा कि लड़कियों और महिलाओं को यह खतरनाक सुविधा मिली हुई है तो मुझे लगा कि यह सुविधा नहीं बल्कि हमें दोयम दर्जे का नागरिक माना जा रहा है, हमारे जीवन की वास्तव में कोई कीमत ही नहीं है, बस, तभी से मैंने निश्चय किया कि मैं भी हेलमेट नहीं लगाउंगी, चलती गाड़ी पर मोबाइल से भी बात करूंगी शायद कभी कोई तो चेतेगा पर नहीं, आज मेरे अस्तित्व को फिर चुनौती मिली, चौराहे पर मेरी ओर एक ट्रैफिक मेन बढ़ा मुझे लगा, कोई तो है जो स्त्री सम्मान की रक्षा करेगा, मेरा चालान करेगा, या मुझे समझाइश देगा लेकिन ये क्या उसने तो मेरे बाजू में खड़े एक व्यक्ति को घेर लिया और हेलमेट नहीं पहनने के लिए उसे चालान बनाने ले गया, यहां तक कि उसके थोड़ा सा आगे दो मॉडर्न महिलाओं को भी उसने नजरअन्दाज कर दिया। मैं उदास हो खड़ी हुई सिग्नल जम्प करने वालों को, ओवरस्पीडिंग करने वालों को स्टॉप लाइन पर खड़े वाहनों को देखती रही। क्यों बड़ी बड़ी बातें करते हैं ये जिम्मेदार लोग जब इन्हें हम महिलाओं के जीवन की भी चिंता नहीं।

प्रकाश श्रीवास्तव

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